श्री बडाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय
स्थापना से अब तक का संक्षिप्त विवरण
1918 ई. में कोलकाता में स्थापित श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय आज देश के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र का एक सुपरिचित नाम है। इस संस्था का जन्म राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रेरणा से हुआ तथा इसके संस्थापक स्वतंत्रता सेनानी स्व. राधाकृष्ण नेवटिया ने इसका इसी दिशा में मार्गदर्शन किया। यह एक पुस्तकालय मात्र नहीं बल्कि राष्ट्रीय विरासत को आगे बढ़ाने वाली शैक्षणिक एवं साहित्यिक संस्था है। एक अच्छे वाचनालय एवं समृद्ध पुस्तकालय के अलावा इसके द्वारा विभिन्न अवसरों पर गोष्ठियों, व्याख्यानों, साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं विविध विषयों पर 30 से अधिक प्रकाशनों, अखिल भारतीय स्तर के दो सम्मानों (‘विवेकानन्द सेवा सम्मान ‘ एवं ‘डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’) ने इसको विशिष्टता प्रदान की है। 2008 र्इ. में यह शताब्दी दशक में प्रवेश कर चुका है। अपने शताब्दी दशक में पुस्तकालय ने 2011 ई. से ‘राष्ट्रीय शिखर प्रतिभा सम्मान’ का भी प्रवर्तन किया है जो इसकी ख्याति का एक प्रमाण है। प्रस्तुत है इसकी सुदीर्घ 96 वर्षीय यशस्वी यात्रा का संक्षिप्त सिंहावलोकन—
बीज का अंकुरण
सन् 1912 में अपने ही शिक्षक से पुस्तक एवं तत्रक्षणार्थ पुस्तकालय की रोमांचक कहानी सुनने के बाद पुस्तकालय के संस्थापक स्व. राधाकृष्णजी नेवटिया के बाल मन में पुस्तकालय स्थापना का भाव अंकुरित हुआ एवं इसे मूर्त्त रूप मिला 1916 ई. में ‘बालसभा पुस्तकालय ‘ के श्री गणेश से। उन्होंने अपने साथियों के साथ इसके परामर्श हेतु एक अन्य अध्यापक श्री कन्हैयालाल शर्मा को अपने मन की बात बताई। वे इनकी बातों से बहुत प्रसन्न हुए एवं उन्होंने पुस्तकालय प्रारम्भ करने के लिए एक छोटी-सी योजना भी बना दी। तत्पश्चात् नेवटियाजी ने अपने अन्य 6 साथियों सर्वश्री नानूराम सराफ, महादेवलाल झुनझुनवाला, मदनलाल टिबड़ेवाल, मदनलाल जाजोदिया, सागरमल जाजोदिया, एवं सोहनलाल जाजोदिया प्रभृति को मदनलाल जाजोदिया के घर पर एकत्रित किया एवं वहीं ‘बालसभा पुस्तकालय’ का श्री गणेश किया। इसके हाथों-हाथ 25 सदस्य भी बन गए एवं काम बड़े उत्साह से आगे बढ़ने लगा। तदुपरान्त सन् 1918 ई. में मित्रों के परामर्श से उन्होंने इसका नाम थोड़ा सा बदलकर ‘श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय’ कर दिया। तब से यह संस्था विधिवत् इस नाम से जानी जाने लगी। इसका विधिवत् निर्वाचन भी हुआ, जिसमें इसके प्रथम सभापति बने पं. कन्हैयालाल शर्मा। साथ ही राधाकृष्ण नेवटिया उपसभापति, चन्द्रमणि राय मन्त्री, नानूराम सराफ कोषाध्यक्ष, मदनलाल जाजोदिया सहमन्त्री एवं महादेवलाल झुनझुनवाला लेखा-परीक्षक चुने गए।
चरखेवाली सभा
सन् 1920 का कालखण्ड स्वदेश प्रेम से अनुप्राणित हो रहा था। विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार एवं स्वदेशी की हवा थी। खादी स्वयं में एक क्रांति थी जिसका प्रारंभ गांधीजी ने किया था। कुमारसभा के युवा कार्यकर्त्ताओं के हृदय में भी देश-प्रेम की भावनाओं का उद्रेक स्वाभाविक था। अत: श्री जमनालालजी बजाज के सहयोग से कुमारसभा इस यज्ञ में शामिल हो गर्इ एवं चरखा सिखाने के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन की गतिविधि का केन्द्र बनकर ‘चरखेवाली सभा’ के नाम से विख्यात हो गई। तब से इसके कार्यकर्त्ता स्वाधीनता संग्राम के हर आन्दोलन में सक्रिय योगदान देते रहे हैं।
साहित्य सम्मेलन द्वारा मान्यता
पुस्तकालय निरंतर लोकप्रियता प्राप्त कर रहा था, पाठकों की संख्या भी बढ़ रही थी। अत: इसे नए एवं बड़े स्थान 402, अपर चितपुर रोड (फूल कटरा) में ले जाया गया। इसकी प्रसिद्धि सुनकर ही सन् 1920 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इसे अपनी परीक्षाओं के केन्द्र के नाते स्वीकृति प्रदान की। परीक्षार्थियों की सुविधा के लिये नि:शुल्क प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई। पं. रामशंकर त्रिपाठी एवं पं. विष्णुदत्त शुक्ल इन छात्रों को पढ़ाया करते थे एवं उनके पढ़ाए हुए छात्र बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण भी होते थे।
प्रकाशनों की शुरुआत
सन् 1921 में गांधीजी कलकत्ता आए। ‘यंग इण्डिया’ में उनके लेख बड़े प्रेरणादायक थे पर वे अंग्रेजी में छपते थे। राष्ट्रीय विचारों के प्रसार की दृष्टि से इसके कार्यकर्त्ताओं ने उन लेखों का हिन्दी में अनुवाद कराकर पुस्तकाकार रूप में छपाने का निश्चय किया। हमारी कार्यकारिणी के तत्कालीन सदस्य एवं योग्य लेखक पं. छविनाथ पाण्डेय ने सम्पादन का भार लिया एवं स्व. बाबूलालजी राजगढि़या ने प्रकाशन हेतु 5 हजार रुपये का गुप्त दान दिया। 1922 ई. में यह ग्रन्थ दो खण्डों में पूर्ण हुआ एवं उनकी 3-3 हजार प्रतियां छापी गई, जो तुरन्त ही बिक गर्इ।
तत्पश्चात् पुस्तकालय ने नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांस के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार अनातोले की कृति ‘थाया’ का उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द द्वारा किया गया हिन्दी रूपान्तर ‘अहंकार’ प्रकाशित करवाया। यह पुस्तक भी हाथों-हाथ बिक गई। दुर्भाग्य से उसकी एक भी प्रति पुस्तकालय में नहीं बची है।
सेवा विभाग एवं विद्यालय
कुमारसभा के सदस्यों द्वारा एक सेवा विभाग भी खोला गया। मेलों तथा समारोहों में इसके सदस्य सेवाकार्य में जुट जाते थे। 17 मई 1934 ई. को कलकत्ता के महान शिक्षाप्रेमी एवं सफल व्यवसायी स्व. शिवकृष्णजी भट्टड़ द्वारा ‘’कुमारसभा विद्यालय’’ का भी शुभारम्भ हुआ जिसे कई वर्ष चलाने के बाद अर्थाभाव के कारण बन्द कर देना पड़ा ।
पुस्तकों का वैज्ञानिक वर्गीकरण
इसी बीच कई बार पुस्तकालय का स्थान बदलना पड़ा एवं इसे सन् 1933 ई. में ‘सुराणा भवन’ लाया गया। इसके पूर्व बड़ौदा पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष को बुलाकर पुस्तकों का वैज्ञानिक वर्गीकरण कराया गया। वर्गीकरण की प्रशंसा करते हुए नागरी-प्रचारिणी सभा की पत्रिका ने उस समय लिखा— ‘अभी तक हिन्दी जगत में इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं हुआ है और स्वयं नागरी-प्रचारिणी सभा का पुस्तकालय भी वैज्ञानिक वर्गीकरण से वंचित है।’
सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियॉं
कुमारसभा पुस्तकालय अपने जन्म से मात्र पुस्तकालय या वाचनालय ही नहीं रहा, बल्कि राष्ट्रीय चेतना एवं सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता का भी केन्द्र बना हुआ है। इसके सदस्य बाल विवाह, मृतक भोज एवं असमय ही विधवा हुई बहनों की समस्याओं को हल करने में पूरी शक्ति से जूझे तथा अमानवीय रूढि़यों का डटकर विरोध किया। चरखेवाली सभा एवं सेवा कार्य का तो पहले जिक्र किया ही जा चुका है। सन् 1928 के आस-पास देशभक्तों पर पुलिस की ज्यादतियों निरन्तर बढ़ रहीं थीं। स्व. नेवटियाजी उस समय कुमारसभा पुस्तकालय के मंत्री तो थे ही, साथ में ‘कलकत्ता आर्टस एण्ड क्राफ्टस एक्जीवीशन’ के भी सचिव थे। उन्होंने उस समय पुलिस के अत्याचारों को दिग्दर्शित करने वाली मिट्टी के मॉडलों की एक प्रदर्शनी लगवाई जिसका उद्-घाटन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने किया। इस हेतु नेवटियाजी को जेल भी जाना पड़ा। ‘नमक सत्याग्रह’ एवं ‘करो या मरो’ आन्दोलन में भी भोजन व्यवस्था पुस्तकालय के कार्यकर्त्ताओं ने सम्भाली ।
सन् 1975 ई. में देश में आपात-स्थिति लगाकर जनता की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात किया गया, लोग भयभीत हो गए। उस स्थिति में भी कुमारसभा के कार्यकर्त्ताओं ने हल्दीघाटी चतु:शती के द्वि-दिवसीय कार्यक्रम के माध्यम से जनजागरण का ओजपूर्ण शंख फूँका। तानाशाही के सीने पर वज्राघात हुआ, कलकत्ता से दिल्ली तक समारोह की गूंज तरंगित हो उठी। कार्यकर्त्ताओं को काफी कष्ट भी उठाने पड़े, कारावरण भी करना पड़ा, पर वह तो स्वाधीनता प्रेमियों का पुरस्कार था। कुमारसभा की परम्परा में यह कुछ नया नहीं था।
साहित्यकारों का वरद-हस्त
प्रारम्भ से ही साहित्यकारों की पुस्तकालय पर विशेष कृपा रही है। वे समय-समय पर आकर कार्यकर्त्ताओं का उत्साहवर्द्धन करते रहे हैं एवं इसके मंच से ज्ञानगंगा प्रवाहित करते रहे हैं। ऐसे मनीषियों में श्रीमती महादेवी वर्मा, सर्वश्री जयदयाल गोयन्दका, रामनरेश त्रिपाठी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, पुरुषोत्तमदास टंडन, नीरज, जैनेन्द्र कुमार जैन, हरिभाऊ उपाध्याय, भगवती चरण वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, नागार्जुन, सोहनलाल द्विवेदी, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, सत्यकेतु विद्यालंकार, वैद्य गुरुदत्त, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. जगदीश गुप्त, श्यामनारायण पाण्डेय, भवानी प्रसाद मिश्र, कन्हैयालाल सेठिया, श्री नारायण चतुर्वेदी, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, प्रो. कल्याणमल लोढ़ा, डॉ. रामचन्द्र तिवारी, डॉ. प्रेमशंकर, डॉ. युगेश्वर, डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. प्रभाकर माचवे, डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी, डॉ. भगवती प्रसाद सिंह, डॉ. नरेन्द्र कोहली, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री , डॉ. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव, डॉ. शिवकुमार मिश्र, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. शिवओम अम्बर, प्रशासक एवं साहित्यकार डॉ. शम्भुनाथ, डॉ. हरीन्द्र श्रीवास्तव, डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, शिवकुमार गोयल, कवयित्री पद्मा सचदेव, श्रीमती ममता कालिया, श्री रवीन्द्र कालिया, डॉ. अरुण प्रकाश अवस्थी, पं. छविनाथ मिश्र, डॉ. चंद्रदेव सिंह, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, भगवती प्रसाद चौधरी, डॉ. वासुदेव पोद्दार प्रभृति विशेष उल्लेखनीय हैं।
सक्षम पुस्तकालय एवं वाचनालय
वर्तमान में कुमारसभा पुस्तकालय 1 सी, मदन मोहन बर्मन स्ट्रीट (1 तल्ला), फूलकटरा के सामने अवस्थित है। 1250 वर्ग फुट क्षेत्र में पुस्तकालय, वाचनालय एवं कार्यसमिति के कक्ष तथा कम्प्यूटर कक्ष पूर्णत: सुसज्जित हैं। कुमारसभा के पुस्तकागार में 25000 से अधिक हिन्दी की उत्तम पुस्तकें हैं एवं 90 के लगभग पत्र-पत्रिकाओं से इसका वाचनालय सुशोभित है। कुल मिलाकर यह एक जागरूक एवं सक्षम संस्थान के रूप में गतिशील है। आप सबके सहयोग से यह उत्तरोत्तर प्रगित करता जाएगा—ऐसा विश्वास है।
हमारे पूर्व अध्यक्ष
कन्हैयालाल शर्मा (1918 से 1920) मदनलाल जाजोदिया (1921 से 1923) रामशंकर त्रिपाठी (1924 से 1926)
छविनाथ पाण्डेय (1927 से 1929) दुर्गा प्रसाद खेतान (1930 से 1931) भागीरथ कानोडिया (1932 से 1933)
बैजनाथ केडि़या (1934 से 1935) राधाकृष्ण नेवटिया (1936 से 1944) वासुदेव थरड़ (1945 से 1948)
धर्मचन्द सरावगी मोहन सिंह सेंगर (1951 से 1952) रघुनाथ प्रसाद खेतान (1953 से 1957)
शिवराम पोद्दार (1958 से 1960) कन्हैयालाल केजड़ीवाल (1961 से 1962) आचार्य सीताराम चतुर्वेदी (1963से 1964)
विष्णुकान्त शास्त्री (1964 से 1965) कृष्णाचार्य (1965-66 से 1971-72) ताराचन्द पोद्दार (1972-73 से 1974-75)
न्दलाल जैन (1975-76 से 1979-80) विनय कृष्ण रस्तोगी (1980-81 से 1982-83) महावीर प्रसाद चौधरी (1983-84 से 1985-86)
शिवरतन जासू (1986-87 से 1992-93) जुगलकिेशोर जैथलिया (1993-94 से 1999-2000) कृष्ण स्वरूप दीक्षित (2000-01 से 2003-04)
डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी (2004-05 से)
हमारे पूर्व मंत्री
चन्द्रमणि राय (1918 से 1919) राधाकृष्ण नेवटिया (1920 से 1935) श्यामसुन्दर जयपुरिया (1936 से 1942)
गोविन्द प्रसाद कानोडि़या (1943 से 1944) राधेश्याम झुनझुनवाला (1945 से 1946) देशभक्त भावसिंहका (1947 से 1950)
नथमल केडि़या (1951 से 1952) रामकृष्ण सरावगी (1953 से 1954) विश्वनाथ चूड़ीवाल (1955 से 1957) (1958 से 1959)
केशव प्रसाद चमडि़या (1960 से 1971-72) विमल कुमार लाठ (1972-73 से 1973-74) जुगलकिेशोर जैथलिया (1974-75 से 1976-77)
शिवरतन जासू (1977-78 से 1984-85) महावीर प्रसाद बजाज (1985-86 से 1999-2000) (2001-02 से 2006-07) (2011-12 से)
गोविन्दनारायण काकड़ा (2000-01) नन्दकुमार लढ़ा (2007-08 से 2010-11)